Quotes in Hindi by Chanakya
1: ऋण, शत्रु और
रोग को समाप्त
कर देना चाहिए।
2: वन की
अग्नि चन्दन की
लकड़ी को भी
जला देती है
अर्थात दुष्ट व्यक्ति किसी
का भी अहित
कर सकते है।
3: शत्रु की दुर्बलता
जानने तक उसे
अपना मित्र बनाए
रखें।
4: सिंह भूखा
होने पर भी
तिनका नहीं खाता।
5: एक ही
देश के दो
शत्रु परस्पर मित्र
होते है।
6: आपातकाल में स्नेह
करने वाला ही
मित्र होता है।
7: मित्रों के संग्रह
से बल प्राप्त
होता है।
8: जो धैर्यवान
नहीं है, उसका
न वर्तमान है
न भविष्य।
9: संकट में
बुद्धि ही काम
आती है।
10: लोहे को
लोहे से ही
काटना चाहिए।
11: यदि माता
दुष्ट है तो
उसे भी त्याग
देना चाहिए।
12: यदि स्वयं
के हाथ में
विष फ़ैल रहा
है तो उसे
काट देना चाहिए।
13: सांप को
दूध पिलाने से
विष ही बढ़ता
है, न की
अमृत।
14: एक बिगड़ैल
गाय सौ कुत्तों
से ज्यादा श्रेष्ठ
है। अर्थात
एक विपरीत स्वाभाव
का परम हितैषी
व्यक्ति, उन सौ
लोगों से श्रेष्ठ
है जो आपकी
चापलूसी करते है।
15: कल के
मोर से आज
का कबूतर भला। अर्थात
संतोष सब बड़ा
धन है।
16: आग सिर
में स्थापित करने
पर भी जलाती
है। अर्थात दुष्ट
व्यक्ति का कितना
भी सम्मान कर
लें, वह सदा
दुःख ही देता
है।
17: अन्न के
सिवाय कोई दूसरा
धन नहीं है।
18: भूख के
समान कोई दूसरा
शत्रु नहीं है।
19: विद्या ही
निर्धन का धन
है।
20: विद्या को चोर
भी नहीं चुरा
सकता।
21: शत्रु के गुण
को भी ग्रहण
करना चाहिए।
22: अपने स्थान
पर बने रहने
से ही मनुष्य
पूजा जाता है।
23: सभी प्रकार
के भय से
बदनामी का भय
सबसे बड़ा होता
है।
24: किसी लक्ष्य
की सिद्धि में
कभी शत्रु का
साथ न करें।
25: आलसी का
न वर्तमान होता
है, न भविष्य।
26: सोने के
साथ मिलकर चांदी
भी सोने जैसी
दिखाई पड़ती है
अर्थात सत्संग का प्रभाव
मनुष्य पर अवश्य
पड़ता है।
27: ढेकुली नीचे सिर
झुकाकर ही कुँए
से जल निकालती
है। अर्थात
कपटी या पापी
व्यक्ति सदैव मधुर
वचन बोलकर अपना
काम निकालते है।
28: सत्य भी
यदि अनुचित है
तो उसे नहीं
कहना चाहिए।
29: समय का
ध्यान नहीं रखने
वाला व्यक्ति अपने
जीवन में निर्विघ्न
नहीं रहता।
30: जो जिस
कार्ये में कुशल
हो उसे उसी
कार्ये में लगना चाहिए।
31: दोषहीन कार्यों का
होना दुर्लभ होता
है।
32: किसी भी
कार्य में पल
भर का भी
विलम्ब न करें।
33: चंचल चित
वाले के कार्य
कभी समाप्त नहीं
होते।
34: पहले निश्चय
करिएँ, फिर कार्य
आरम्भ करें।
35: भाग्य पुरुषार्थी के
पीछे चलता है।
36: अर्थ, धर्म और
कर्म का आधार
है।
37: शत्रु दण्डनीति के
ही योग्य है।
38: कठोर वाणी
अग्निदाह से भी
अधिक तीव्र दुःख
पहुंचाती है।
39: व्यसनी व्यक्ति कभी
सफल नहीं हो
सकता।
40: शक्तिशाली शत्रु को
कमजोर समझकर ही
उस पर आक्रमण
करे।
41: अपने से
अधिक शक्तिशाली और
समान बल वाले
से शत्रुता न
करे।
42: मंत्रणा को गुप्त रखने
से ही कार्य
सिद्ध होता है।
43: योग्य सहायकों के
बिना निर्णय करना
बड़ा कठिन होता
है।
44: एक अकेला
पहिया नहीं चला
करता।
45: अविनीत स्वामी के
होने से तो
स्वामी का न
होना अच्छा है।
46: जिसकी आत्मा संयमित
होती है, वही
आत्मविजयी होता है।
47: स्वभाव का अतिक्रमण
अत्यंत कठिन है।
48: धूर्त व्यक्ति अपने
स्वार्थ के लिए
दूसरों की सेवा
करते हैं।
49: कल की
हज़ार कौड़ियों से
आज की एक
कौड़ी भली। अर्थात संतोष सबसे
बड़ा धन है।
50: दुष्ट स्त्री बुद्धिमान
व्यक्ति के शरीर
को भी निर्बल
बना देती है।
चाणक्य
(Chanakya)
51: आग में
आग नहीं डालनी
चाहिए। अर्थात क्रोधी व्यक्ति
को अधिक क्रोध
नहीं दिलाना चाहिए।
52: मनुष्य की वाणी
ही विष और
अमृत की खान
है।
53: दुष्ट की मित्रता
से शत्रु की
मित्रता अच्छी होती है।
54: दूध के
लिए हथिनी पालने
की जरुरत नहीं
होती। अर्थात आवश्कयता
के अनुसार साधन
जुटाने चाहिए।
55: कठिन समय
के लिए धन
की रक्षा करनी
चाहिए।
56: कल का
कार्य आज ही
कर ले।
57: सुख का
आधार धर्म है।
58: धर्म का
आधार अर्थ अर्थात
धन है।
59: अर्थ का
आधार राज्य है।
60: राज्य का आधार
अपनी इन्द्रियों पर
विजय पाना है।
61: प्रकृति (सहज) रूप
से प्रजा के
संपन्न होने से
नेताविहीन राज्य भी संचालित
होता रहता है।
62: वृद्धजन की सेवा
ही विनय का
आधार है।
63: वृद्ध सेवा अर्थात
ज्ञानियों की सेवा
से ही ज्ञान
प्राप्त होता है।
64: ज्ञान से राजा
अपनी आत्मा का
परिष्कार करता है,
सम्पादन करता है।
65: आत्मविजयी सभी प्रकार
की संपत्ति एकत्र
करने में समर्थ
होता है।
66: जहां लक्ष्मी
(धन) का निवास
होता है, वहां
सहज ही सुख-सम्पदा आ जुड़ती
है।
67: इन्द्रियों पर विजय
का आधार विनर्मता
है।
68: प्रकर्ति का कोप
सभी कोपों से
बड़ा होता है।
69: शासक को
स्वयं योगय बनकर
योगय प्रशासकों की
सहायता से शासन
करना चाहिए।
70: योग्य सहायकों के
बिना निर्णय करना
बड़ा कठिन होता
है।
71: एक अकेला
पहिया नहीं चला
करता।
72: सुख और
दुःख में सामान
रूप से सहायक
होना चाहिए।
73: स्वाभिमानी व्यक्ति प्रतिकूल
विचारों कोसम्मुख रखकर दुबारा
उन पर विचार
करे।
74: अविनीत व्यक्ति को
स्नेही होने पर
भी मंत्रणा में
नहीं रखना चाहिए।
75: शासक को
स्वयं योग्य बनकर
योग्य प्रशासकों की
सहायता से शासन
करना चाहिए।
76: सुख और
दुःख में समान
रूप से सहायक
होना चाहिए।
77: स्वाभिमानी व्यक्ति प्रतिकूल
विचारों को सम्मुख
रखकर दोबारा उन
पर विचार करे।
78: अविनीत व्यक्ति को
स्नेही होने पर
भी अपनी मंत्रणा
में नहीं रखना
चाहिए।
79: ज्ञानी और छल-कपट से
रहित शुद्ध मन
वाले व्यक्ति को
ही मंत्री बनाए।
80: समस्त कार्य पूर्व
मंत्रणा से करने
चाहिए।
81: विचार अथवा मंत्रणा
को गुप्त न
रखने पर कार्य
नष्ट हो जाता
है।
82: लापरवाही अथवा आलस्य
से भेद खुल
जाता है।
83: सभी मार्गों
से मंत्रणा की
रक्षा करनी चाहिए।
84: मन्त्रणा की सम्पति
से ही राज्य
का विकास होता
है।
85: मंत्रणा की गोपनीयता
को सर्वोत्तम माना
गया है।
86: भविष्य के अन्धकार
में छिपे कार्य
के लिए श्रेष्ठ
मंत्रणा दीपक के
समान प्रकाश देने
वाली है।
87: मंत्रणा के समय
कर्त्तव्य पालन में
कभी ईर्ष्या नहीं
करनी चाहिए।
88: मंत्रणा रूप आँखों
से शत्रु के
छिद्रों अर्थात उसकी कमजोरियों
को देखा-परखा
जाता है।
89: राजा, गुप्तचर और
मंत्री तीनो का
एक मत होना
किसी भी मंत्रणा
की सफलता है।
90: कार्य-अकार्य के
तत्वदर्शी ही मंत्री
होने चाहिए।
91: छः कानो
में पड़ने से
(तीसरे व्यक्ति को पता
पड़ने से) मंत्रणा
का भेद खुल
जाता है।
92: अप्राप्त लाभ आदि
राज्यतंत्र के चार
आधार है।
93: आलसी राजा
अप्राप्त लाभ को
प्राप्त नहीं करता।
94: आलसी राजा
प्राप्त वास्तु की रक्षा
करने में असमर्थ
होता है।
95: आलसी राजा
अपने विवेक की
रक्षा नहीं
कर सकता।
96: आलसी राजा
की प्रशंसा उसके
सेवक भी नहीं
करते।
97: शक्तिशाली राजा लाभ
को प्राप्त करने
का प्रयत्न करता
है।
98: राज्यतंत्र को ही
नीतिशास्त्र कहते है।
99: राज्यतंत्र से संबंधित
घरेलु और बाह्य,
दोनों कर्तव्यों को
राजतंत्र का अंग
कहा जाता है।
100: राज्य नीति का
संबंध केवल अपने
राज्य को सम्रद्धि
प्रदान करने वाले
मामलो से होता
है।
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